जोगी का मन नहीं ठिकाने / ललित मोहन त्रिवेदी
हम सभी कोई न कोई लबादा ओढे हुए हैं और धीरे धीरे यही लबादा हमें सत्य लगने लगता है !
हमारी वासनाएं छूटती नहीं हैं सिर्फ़ वेश बदल लेती हैं ,एक नया लबादा ओढ़ लेती हैं और इसी को हमारे अन्दर बैठा हुआ जोगी परम सत्य मानकर आत्म मुग्ध होता रहता है !
इसी आत्म मुग्धता को तोड़ती एक रचना .........
पहने लाख गेरुआ बाने !
जोगी का मन नहीं ठिकाने !!
पहले दौड़ भोग की खातिर !
अब है दौड़ मुक्ति को पाने !!
तप करते युग बीत चला है
और उमर घट रीत चला है
कभी रती तो कभी आरती
छलते-छलते स्वयम् छला है
मुदी पलक में अभी ललक है !
रम्भा आई नहीं रिझाने !!
जोगी का मन .....................
तृष्णा ने बदला है चोला
घर छोड़ा तो आश्रम खोला
खुल पायीं पर नहीं गठानें
झोली नहीं बन सका झोला
रमता अगर कहीं भी मन तो
आता धूनी नहीं रमाने
जोगी का मन .....................
हम जोगी हैं या बंजारे
मुक्ति और भटकन के मारे
हमको फुरसत कहाँ कि देखें
कौन खड़ा है भुजा पसारे
पहले सब पाने को आतुर
अब पागल है सब ठुकराने
जोगी का मन .....................
बादल गहरे भर जाने थे
बिन टकराए झर जाने थे
मन होता मर जाने का तो
शुभ आशीष अखर जाने थे
लेकिन हमने तो मढ़वाकर
रक्खे हैं पदचिन्ह पुराने
जोगी का मन ....................