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जोगी / केशव तिवारी
Kavita Kosh से
इक तारा का तार तो
सुरो से बंधा है
तुम्हारा मन कहां बंधा है जोगी
इस अनाशक्ति के पीछे
झांक रही है एक गहरी आशक्ति
यह विराग जिसमें रह - रह
गा उठता है
तुम्हारा जीवन राग
तुम्हारे पैर तो भटकन से बंधे है
ये निर्लिप्त आंखे कहां
देखती रहती है जोगी
प्रेम यही करता है जोगी
डुबाता है उबारता है
भरमता है भरमाता है
तुम्हारा निर्गुन तो
कुछ और कह रहा है
पर तुम्हारी सांसे
तो कुछ और पढ़ रही हैं जोगी।