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जो कुछ भी चाहा था एकान्त आग्रह से / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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जो कुछ भी चाहा था एकान्त आग्रह से
उसके चारों ओर से
बाहु की वेष्टनी जब होती दूर,
तब बन्धन से मुक्त उस क्षेत्र में
जो चेतना होती उद्भासित है
प्रभात किरणों के साथ
देख रहा हूं उसी का अभिन्न स्वरूप आज।
शून्य है, तो भी वह शून्य नही।
समझ जाता हूं उसी क्षण ऋषि की वाणी यह
आकाश आनन्द पूर्ण होता नहीं कहीं तो
देह मन प्राण मेरे निष्क्रिय हो जाते सब जड़ता के नागपाश में।
कोह्येवान्यात् का प्राण्यात्
यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।
‘उदयन’
प्रभात: 3 दिसम्बर