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जो कुछ भी देखता हूँ, अच्छा नहीं बुझाता / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
जो कुछ भी देखता हूँ, अच्छा नहीं बुझाता।
जिसको भी देखता हूँ बच्चा नहीं बुझाता।।
अपनों से मार खाये करते रहे भरोसा।
रहते हैं साथ लेकिन सच्चा नहीं बुझाता।।
रहते हैं साथ सारे मिलकर नहीं जहाँ में।
नफरत का फल जो कडु़आ कच्चा नहीं बुझाता।।
कहते तो सब यही हैं हम देश के सिपाही।
ये अंगूर की तरह पर गुच्छा नहीं बुझाता।।
आये जो पास मेरे लगते शरीफ जैसे।
क्या खूब है लिबासे, लुच्चा नहीं बुझाता।।