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जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है / अब्दुल अहद 'साज़'
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जो कुछ भी ये जहाँ की ज़माने की घर की है
रूदाद एक लम्हा-ए-वहशत-असर की है
फिर धड़कनों में गुज़रे हुओं के क़दम की चाप
साँसों में इक अजीब हवा फिर उधर की है
फिर दूर मंज़रों से नज़र को है वास्ता
फिर इन दिनों फ़ज़ा में हिकायत सफ़र की है
पहली किरन की धार से कट जाएँगे ये पर
इज़हार की उड़ान फ़क़त रात भर की है
इदराक के ये दुख ये अज़ाब आगही के, दोस्त !
किस से कहें ख़ता निगह-ए-ख़ुद-ए-निगर की है
वो अन-कही सी बात सुख़न को जो पुर करे
'साज़' अपनी शायरी में कमी उस कसर की है