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जो कोउ हरिके गुनगन गावै / स्वामी सनातनदेव

राग ललित, तीन ताल 25.8.1974

जो कोउ हरि के गुनगन गावै-
प्रियतम के प्रसादसों सो जन प्रीति पदारथ पावै॥
गुन गाये गुन ही उर बाढ़ें, औगुन निकट न आवै।
अनुदिन बढहि प्रीति प्रीतम में, सब भव-भीति भगावै॥1॥
कहा लाभ, करि बात जगत की व्यथहि वयस बितावै।
विषय-वार्ता के विषसों जरि निज सुख वृथा गँवावै॥2॥
प्रियतम हैं आतम के आतम, तिन के गुन जो गावै-
तो निज में ही प्रीतमकों लखि नित्य परम पद पावै॥3॥
यासों बाह्य विषय-चर्चा तजि नित्य स्याम-गुन गावै।
गाय-गाय अरु ध्याय-ध्याय स्यामहिकों हिये बसावै॥4॥
यों निज में प्रियतमकों अनुभवि निजता भ्रान्ति भुलावै-
तो प्रियता में ही निजताकों होमि प्रीति-रस पावै॥5॥