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जो जितना ही ऊपर से दिखता निडर था / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जो जितना ही ऊपर से दिखता निडर था
सचाई थी भीतर से उतना ही डर था
चले साथ मंजिल तक पर अजनबी से
अजब फासले का वह मेरा सफर था
लड़ा मैं निहत्थे मरा भी तो मैं ही
सभी बचके निकले वो ऐसा समर था
न ईंटा न पत्थर न पाया न छप्पर
जिसे तुमने देखा वह मेरा ही घर था
न कहते न हँसते बस चलते सभी थे
यकीं मानो कस्बा न गाँव था-नगर था
सभी तो वहाँ थे जब अमरित पिया था
अभी लोग कहते हैं वह तो जहर था
मरा जा रहा था जो अपने किए पर
तो मेरी ही गजलों का उस पर असर था।