भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो दिन अभी आए नहीं / शशिप्रकाश

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक दिन
लोग इन दिनों के बारे में बातें करेंगे

कि कविता तब गाढ़े साँवले अँधेरे में
आकुल तन्द्रा के समान थी
या चुपचाप बहते रक्त के समान।

कि सपने तब तिरते थे ज्यों
रक्त की नदी में डगमग एक डोंगी।

और फिर वे दिन आए
कि कविताओं में
पत्थरों पर जमी हरी काई की
ज़ि‍द्दी जिजीविषा हुआ करती थी,

फेफड़ों की आखि़री ताक़त झोंककर
फ़ैसले के मुक़ाम की ओर भागते
घोड़े के गर्म-गतिमान शरीर से
उठती गन्ध हुआ करती थी।

एक दिन लोग
कविता में
उन दिनों की बातें भूतकाल में करेंगे
जो अभी आए नहीं।

( रचनाकाल : 2 जनवरी 1997)