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जो नहीं दिखता / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

(1)

ठिठक गया राह चलते-चलते
उलझ गया जब पैरों में
उड़ता हुआ, चुकी घटनाओं का दस्तावेज
उठा लिया झुककर
हालाँकि बोझ था बहुत पीठ पर
स्ट्रीट-लाइट की सीमित रोशनी का दायरा
जिंदगी के लंबे अँधेरों में
बाँच नहीं पाया अपने हक का कुछ
उलटता-पुलटता रहा देर तक
फिर छोड़ दिया धीरे-से
जीवन प्रवाह में बहने के लिए
चल दिया अँधेरे में
अंधकार से लड़ने

(2)

लौ रहा था दूसरा
रोशनी, बहूँगी में उठाये
बच्चों को बहलाते
बच्चों को लुभाते
बेचकर जीवन के रंग-बिरंगे स्वाद
धरा के सहयात्रियों का विश्वकोश
रखा रहता था उसके थाल में
पर रोज अपने घर तक आते-आते
चुक जाते थे सारे संदर्भ
रोशनी को बचाता हवाओं से
लौट रहा था
दुलकी चाल से

(3)

त्रिकोण के एक कोण पर सर्कस का पोस्टर
दूसरे पर हँसता हुआ जोकर
नब्बे डिग्री पर एक उदास चेहरा
मात करता काले रंग को भी
खदान से निकला अनगढ़ काला हीरा
कौन तराशेगा?
अभी तो भाग्य है कूड़ा ढोना
छूट चुकी है तख्ती
छूट चुके हैं शब्द
छूट चुका है ककहरा
छूट चुके हैं पहाड़
कौन अखबार पढ़ना है
या गिनने हैं रुपये
भूख सब-कुछ छुड़ा देती है
हाथों में कर्म पकड़ा देती है
चाहे बाधा हो कानून
चाहे बाधा हो आयु-सीमा
बच्चा हो या जवान
अधेड़ हो या बूढ़ा
कोई समाज नहीं
कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं
कोई घर, कोई परिवार नहीं
विदूषक अब भी हँस रहा है
ईश्वर पर,
राज्य पर,
उसके प्रतिनिधियों पर,
समाज पर,
उसके ठेकेदारों पर,
बंद पड़ीं
बाइस्कोप की खिड़कियों को
देखता हुआ।