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जो बात है हद से बढ़ गयी है / फ़िराक़ गोरखपुरी

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जो बात है हद से बढ़ गयी है
वाएज़<ref>उपदेशक</ref> के भी कितनी चढ़ गई है
 
हम तो ये कहेंगे तेरी शोख़ी
दबने से कुछ और बढ़ गई है

हर शय ब-नसीमे-लम्से-नाज़ुक<ref>कोमल हवा के स्पर्श से</ref>
बर्गे-गुले-तर से बढ़ गयी है

जब-जब वो नज़र उठी मेरे सर
लाखों इल्ज़ाम मढ़ गयी है

तुझ पर जो पड़ी है इत्तफ़ाक़न
हर आँख दुरूद<ref>दुआ का मन्त्र</ref> पढ़ गयी है
 
सुनते हैं कि पेंचो-ख़म<ref>टेढ़ापन</ref> निकल कर
उस ज़ुल्फ़ की रात बढ़ गयी है

जब-जब आया है नाम मेरा
उसकी तेवरी-सी चढ़ गयी है

अब मुफ़्त न देंगे दिल हम अपना
हर चीज़ की क़द्र बढ़ गयी है

जब मुझसे मिली 'फ़ि‍राक' वो आँख
हर बार इक बात गढ़ गयी है

शब्दार्थ
<references/>