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जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे / शकेब जलाली

कुछ शे’र

जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे
मुझपे माइल बकरम हैं तो दिले दरिया दे

ख़लिश-ए-ग़म से मेरी जाँ पे बनी है जैसे
रेशमी शाल को काँटों पे कोई फैला दे

००

देख ज़ख़्मी हुआ जाता है दो आलम का खुलूस
एक