भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे / शकेब जलाली
Kavita Kosh से
कुछ शे’र
जो भी तालिब है यक ज़र्रा उसे सहरा दे
मुझपे माइल बकरम हैं तो दिले दरिया दे
ख़लिश-ए-ग़म से मेरी जाँ पे बनी है जैसे
रेशमी शाल को काँटों पे कोई फैला दे
००
देख ज़ख़्मी हुआ जाता है दो आलम का खुलूस
एक