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जो भी मेरे हवाले गए / अनुज ‘अब्र’
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जो भी मेरे हवाले गए
मयकदे से निकाले गए
ताकि उड़ ना सकूँ मैं कभी
पर मेरे नोंच डाले गये
अश्क़ ग़ज़लों में ढलने लगे
अब वो दिन रोने वाले गए
थे मुख़ालिफ़ अंधेरों के जो
उनके घर फूँक डाले गए
तुम गिराने में उस्ताद थे
खुद को पर हम बचा ले गए
मिल गई राह इक खुरदरी
पाँव के मेरे छाले गए
बात की जिसने भी अम्न की
उसपे पत्थर उछाले गए
हक़ में आया न जब फ़ैसला
फिर से सिक्के उछाले गए
जिन ख़तों में मेरी जान थी
वो न तुम से सम्हाले गए