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जो मिल गई हैं निगाहें कभी निगाहों से / 'शमीम' करहानी

जो मिल गई हैं निगाहें कभी निगाहों से
गुज़र गई है मोहब्बत हसीन राहों से

चराग़ जल के अगर बुझ गया तो क्या होगा
मुझे न देख मोहब्बत भरी निगाहों से

बला-कशों की अँधेरी गली को क्या जाने
वो ज़िंदगी जो गुज़रती है शाह-राहों से

लबों पे मुहर-ए-ख़ामोशी लगाई जाएगी
दिलों की बात कही जाएगी निगाहों से

इधर कहा कि न छूटे सवाब का जादा
उधर सजा भी दिया राह को गुनाहों से

फ़ज़ा-ए-मै-कदा-ए-दिल-कुशा में आई है
हयात घुट के जो निकली हैं ख़ानक़ाहों से

मिरी नज़र का तक़ाज़ा कुछ और था ऐ दोस्त
मिला न कुछ मह ओ अंजुम की जलवा-गाहों से

ख़जाँ की वादी-ए-ग़ुर्बत गुज़ार लें तो ‘शमीम’
मिलें दियार-ए-बहाराँ के कज-कुलाहों से