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जो रिक्शा धूप और बरसात में दिन भर चलाता / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद' संग्रह= }} साँचा:KKCatGazal
जो रिक्शा धूप और बरसात में दिन भर चलाता है
कभी सोचो ज़रा कैसे वो अपना घर चलाता है
जिसे दुनिया बड़ा दानी समझती है जमाने में
गरीबों के निवाले छीन कर लंगर चलाता है.
यही दस्तूर है बन्दूक हर इन्सान दुनिया में
हमेशा दूसरों के काँधे पर रख कर चलाता है
हर एक शै अपना अपना काम मुस्तैदी से करती है
न जाने कौन है दुनिया का जो दफ्तर चलाता है
गलत है या सही ये सोचता है कौन दुनिया में
उधर ही लोग चलते हैं जिधर रहबर चलाता है
जवानी में भला किस किसकी नज़रों से बचोगे तुम
शज़र फलदार हो तो हर कोई पत्थर चलाता है
करम की बारिशें करता है खुश होता है जब 'बेखुद'
अगर नाराज हो तो आसमा पत्थर चलाता है