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जो सौ-सौ ग़म उठाना चाहता है / दरवेश भारती
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जो सौ-सौ ग़म उठाना चाहता है
वो अश्कों का खज़ाना चाहता है
असीरे-खौफ़ो-दहशत है जो खुद ही
वही सबको डराना चाहता है
सवालों से घिरे रहते हो अक्सर
कहाँ तुमको ज़माना चाहता है
बनाकर ज़ह्र-आलूदा हवाएँ
वो इक मौसम सुहाना चाहता है
तेरे गिर्द उड़नेवाला इक परिन्दा
तेरे दिल में ठिकाना चाहता है
उलझ जाये न खुद वो मुश्किलों में
जो सबको आज़माना चाहता है
जवानी में बुने ख्वाबों की ता'बीर
ऐ 'दरवेश' अब तू पाना चाहता है