भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जो हमारा खून पीने आये थे / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
Kavita Kosh से
जो हमारा खून पीने आये थे
उन को भी दातों पसीने आये थे
पड़ गया ग़ैरत का लंगर पाऊँ में
गौद में लेने सफ़ीने आये थे
हसरतो के मक़बरे में दफ़न हूँ
मेरे खावाबों में ख़ज़ीने आये थे
सर पे इतना बोझ केसे अगया
हम यहाँ दो दिन को जीने आये थे
फूल पर आये थे हम जैसे बबूल
चंद अयसे भी महीने आये थे
दिल पशेमान था न आंसूं आंखं में
शैख़ जी मके मदीने आये थे