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जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी / रियाज़ ख़ैराबादी

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जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी
पुरानी दोस्ती भी ताक़ पर ऐ मेहरबाँ रख दी

ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
बराबर मस्जिद-ए-जामे के हम ने अब दुकाँ रख दी

चमन का लुत्फ़ आता है मुझे सय्याद के सदक़े
क़फ़स में ला के उस ने आज शाख़-ए-आशियाँ रख दी

बिना है एक ही दोनों की काबा हो कि बुत-ख़ाना
उठा कर ख़िश्‍त-ख़ुम वहाँ रख दी यहाँ रख दी

ये क़ैस ओ कोहकन के से फ़साने बन गए कितने
किसी ने टुकड़े टुकड़े कर के सारी हमारी दास्ताँ रख दी

ये आलम है ‘रियाज़’ एक एक क़तरे को तरसता हूँ
हरम में अब भरी बोतल ख़ुदा जाने कहाँ रख दी