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ज्ञानमती विरह / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:-

सुनहु चेति हिय राजकुमारा। मैं अव कहों कथा व्यवहारा॥
योगी एक कतहुं ते आऊ। देखत सब लच्छन तन राऊ॥
पुनि तिन किय पुरुषारथ मारी। मारयो दैत प्रचंड प्रचारी॥
कुछ दिन रह्यो उदयपुर मांहा। प्रेम प्रतीति कियो नरनाहा॥
तब राजा के भौ। मन माना। रानी सहित संकल्प प्रधाना॥
ताको ज्ञानमती धनि दीन्हा। वचन प्रमाण दुहू दिशि कीन्हा॥
तीरथ मिसु गवने अपराधी। दिन दिन बढयो कुंअरितन व्याधी॥

विश्राम:-

कपट परम पाषंड उर, तजि गौ राजकुमार।
तवते जा दुख सुन्दरी, सो सब कहों विचारि॥198॥