ज्ञान / मनोज कुमार झा
ऐसे ही घूमते रहोगे रौद्र धूप भीषण बारिश में
दरवाज़े खटखटाते रहोगे
सब सोए होंगे तुम्हारी दस्तक निष्पफल जाएगी
कोई छड़ी लेकर निकलेगा कुत्ते की आशंका में
तुम्हें देखकर इतना तक नहीं कहेगा
कि मेरी आशंका निर्मूल थी
जहाँ बिल्कुल आशंका नहीं वहाँ भी अपमानित होओगे
इसलिए नहीं कि तुम बड़े कुशाग्र हो या बड़े मूर्ख
या बड़े नेक हो या बड़े पाखंडी
बस इसलिए कि तुम्हें अन्न से प्रेम है
जल से और धरती से
और मनुष्य के प्रेम से
बल्कि सचमुच सोच सको तो प्रेम भी नहीं
तुम्हें इनकी ज़रूरत है
तुम चाहोगे कि ज़रूरत को प्रेम की तरफ़ झुका दो
मगर लोग तुम्हारे प्रेम को ज़रूरतों की तरफ़ झुका देगें
भटकते फिरोगे
इसलिए नहीं कि मणि के खींच लेने के बाद का
घाव है तुम्हारे माथे पर
बल्कि इसलिए कि यह पृथ्वी बड़ी सुंदर है
और तुम जानते हो कि यह पृथ्वी बड़ी सुंदर है ।