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ज्यों-ज्यों सूरज निखर रहा है / हरि फ़ैज़ाबादी

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ज्यों-ज्यों सूरज निखर रहा है
अँधियारे को अखर रहा है

पता नहीं क्यों सच कहकर वो
सच सहने से मुकर रहा है

थक तो गया सपेरा लेकिन
जोश साँप का उतर रहा है

सिर्फ़ एक ही ज़िद से सारे
घर का सपना बिखर रहा है

दुल्हन माला डाल चुकी, पर
दूल्हा उँगली कुतर रहा है

लाज ग़ज़ल की रखने में फिर
दर्द क़लम का उभर रहा है

तड़प रही है प्यासी धरती
अब्र घुमड़कर सँवर रहा है