भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज्वार और जीवन / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज्वार खड़ी खेतों में ऊँची लहराती है
लम्बे पत्तों की तलवारें चमकाती है
कहती है मेरे यौवन को बढ़ने देना
वीर जुझारू हरियाली से सजने देना
इससे पहले मुझे न छूना।
मेरी इच्छा है जीने की जीने देना
जी भर मुझको धूप रुपहली पीने देना
शाम सबेरे की होली में हँसने देना
मस्त हवा के हिलकारों में हँसने देना
इससे पहले मुझे न छूना।
आती हैं जो प्रिय बालाएँ आने देना
काली आँखों में मुझको बस जाने देना
पत्तों से चंचल आँचल हिल जाने देना
दिल से दिल मेरे उनके मिल जाने देना
इससे पहले मुझे न छूना।
गाते हैं जो हलधर गाना गाने देना
रसिया, कजरी, चौमासा उफनाने देना
कान्हा-राधा की बातें दुहराने देना
मेरी मेड़ों पर द्वापर को आने देना
इससे पहले मुझे न छूना।
कारी, धौरी गायों को कुहराने देना
हरियारी खाकर पूरी दुधियाने देना
चोरी चोरी मेरे ढिग तक आने देना
पागुर करती आशा से हुलसाने देना
इससे पहले मुझे न छूना।
कातिक तक तुम ताके रहना, नींद न लेना
फल पाने की अभिलाषा को दिल में सेना
मुझसे तुम गुच्छे के गुच्छे मोती लेना
अगहन में तुम मेरी खातिर हँसिया देना
इससे पहले मुझे न छूना।

रचनाकाल: संभावित १९५२