भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झम्मम / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
गोलम-गोलम गोल मंटोला।
झम्मम हैं फ़ुटबाल का गोला।
डग्गम-डग्गम जब चलते हैं,
तो लगता है अभी गिरे।
लेकर लाठी चलती दादी।
गिरते झम्मम, उन्हें उठातीं।
अगर छींक भी आ जाती तो,
झम्मम भैया बहुत डरे।
लुडक-लुडक जाते हैं झम्मम।
न हो शायद पैरों में दम।
थक जातीं है दादीजी जब,
कहने लगतीं हरे हरे।
झम्मम कभी-कभी उठ जाते।
ठिल-ठिल ठिल कर हँसते जाते।
पारिजात के किसी दरख़्त से,
लगता जैसे फूल झरे।