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झरना रंग और सपने / कुमार सुरेश
Kavita Kosh से
सांझ लाल चुनरिया लहरा रही है
अब वह काली ओढ़नी ओढ़ेगी
सुबह पहन लेगी उजाला
सजना चाहती है वह चटक रंगों से
पृथ्वी सद्य-प्रसूता है
उसका ह्रदय द्रवित है संतान के लिए
संतान कि भूख उससे देखी नहीं जाती
सदा रहना चाहती है वह वत्सला
बहने कि आकांक्षा ही नदी है
नदी के पास सिर्फ़ मीठा पानी है
उसे पसंद नहीं सूखी धरती
वह भरना चाहती है गन्ने, गेहूँ की बाली
और मकई के दाने में मिठास
स्त्री की आँख के भीतर झरना है
यह संसार सूखने से बचा हुआ है
स्त्री का ह्रदय रंगों से भरा है
दुनिया में चटक रंग बिखरे हैं
जीवन एक उत्सव है क्योंकि
माँ प्रेयसी और बेटी के रूप में
स्त्री है इस पृथ्वी पर