झरना : एक आलाप / अजित कुमार
फिर मैं नहाकर स्वच्छ हो लिया
एक झरना था बाहर से भीतर
झर झर झर
फिर उसने दाँत किटकिटाए
अध-सोती अध-जागती
छायामूर्तियाँ
अतीत की धुन्ध को मिटाकर साकार हुईं :
‘याद है, वह छवि अभी तक याद है …
आठ, ना, साढे सात साल का
दुबला-पतला एक मनुष्य ।
सुन्दर ? हाँ, सुन्दर-
बल्कि सुन्दरता खोजता—
बधाई । धन्यवाद । आपसे मिलकर बड़ी खुशी हुई ?
हार्दिक शुभ-कामनाएँ । --के अन्दर
गो उससे ये शब्द आप कभी न कहला सकते थे ।
उसकी घिघ्घी बंध जाती थी ।
छायामूर्तियो । विलीन हो जाओ ।
हमें नए आकार गढने दो
इस बार यह कहकर—
“अब मुझे तुम्हारी, या किसी की
कोई ज़रूरत नहीं “-
ठीक इतने ही शब्दों में ।
एक झरना जो भीतर से बाहर
को बहता है
झर झर झर
उफन उठा :
अभी और । अभी और ।
अब वह खाँस रही है
अब वह खाँस रहा है
अब वह चीख़ रही है
अब वह चीख़ रहा है
ओ मूर्ति ।
तू एक का हाथ, दूसरे का
सर, तीसरे की आँख,
चौथी के
वस्त्र, पाँचवीं के होंठ
कहाँ से चुरा लाई ?
वे आठ-दस-बीस
वे सब-की-सब
वे सब-के-सब
भिन्न थीं,
भिन्न थे…
तूने उन्हें एक में ही गड्ड-मड्ड किया ।
पगली ।
तू हँसती है ?
तुझे ‘पगली’ में प्यार की
सुगन्ध आ रही है ।
तू पागल है ।
इसमें भी तू वही गन्ध पा रही है ?
ओ छाया । ओ प्रेत ।
ओ पिता ।
दूर देश में, लहराते सागर के पास, आधी
रात को, पुराने क़िले की प्राचीर से टिका
पहरुआ बोला—
“बेहद सर्दी है, और मैं भीतर से दुखी हूँ ।“
छायामूर्तियो ।
जानती हो : झरने हैं कितने ?
कुछ भीतर से बाहर
कुछ भीतर ही भीतर
कुछ बाहर से भीतर
कुछ बाहर ही बाहर
और भी
जो स्वच्छ हैं । शान्त ।
कोलाहलयुक्त । उष्ण ।
हिमशीतल ।
उथले ।
गन्दे ।
और कितने ही बेहद बेहद बेहद
गहरे ।
वह व्यक्ति, हाँ वही, जिसे मनुष्य
कह चुका हूँ
उन सबमें—उनमें से प्रत्येक में—
डूबकर
अपने को मिटा देना चाहता था
किन्तु
कर न सका ।
आज मैं सोचता हूँ :
क्या वह संकोची था ?
आत्मतुष्ट ?
या कायर ?
उसे अपराधी कहूँ ?
--कुछ तो बताओ । छायामूर्तियो ।
हटाओ, हटाओ यह भीड़
शोर बन्द करो
शांति । शांति । …
हम तलाशते थे गुनहगार एक बच्चे को ।
तुम कहाँ से उठा लाईं :
दम तोड़ता हुआ यह बुड्ढा ।
दफ़नाओ ।