भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झरबेर / केदारनाथ सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रचंड धूप में
इतने दिनों बाअ
(कितने दिनों बाअ)
मैंने ट्रेन की खिड़की से एखे
कँटीली झाड़ियों पर
पीले-पीले फल

’झरबेर हैं’- मैंने अपनी स्मृति को कुरेदा
और कहीं गहरे
एक बहुत पुराने काँटे ने
फिर मुझे छेदा