भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झरा दूध अभी /लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोठा है प्राचीन काठ के संदूक में जीवित
मानो पेड़ की देह में हरी रस भरी सॉंस लेता
उससे टिकाकर पीठ बैठी एक लड़की
पुरानी साड़ी की तहों में डूबती कि
अबंधी साड़ी में खुद को दादी की जगह निहारती

कनस्‍तर में रखे गर्म आटे की सुगंध
कच्‍चे गेहूं की बालियों को चूमता किसान
एक कसे हुए जिस्‍म में हंसता अधेड़
कि पढ़ा उसने तूतनखानम के कद्दावर अर्दली का किस्‍सा

एक डेढ़ेक साल का बच्‍चा मचलता पेड़ से लटकते झूले पर
कि तगाड़ी उठाती मां के स्‍तनों से झरा दूध अभी
थोड़े नजीक में एक और तैयार होता लड़का
तांगे में घोड़े की रास थामे पुकारता अब्‍बू को

कितनी तहों के नीचे अंधेरों में डूबी रोशनी
रोज की टूट-फूट में बचा कितना कुछ
ध्‍वंस के मुहाने पर कमाल कितना
एक परिंदा फूल सी हॅंसी लिए डोल रहा