झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई / सरोजिनी कुलश्रेष्ठ
अरी हवाओं! अरी आँधियों!
वहाँ सम्भल कर आना तुम,
लक्ष्मीबाई की समाधि वह
वहाँ न शोर मचाना तुम।
कैसे स्वर्ग सिधारी थी वह
कैसे उसकी चिता जली,
छिपा हुआ इतिहास इसी में
कैसे सबसे गई छली।
नारी थी वह कोमल ह्रदया
थी अपार ममता भण्डार,
दु: खी जनों के दु:ख में रानी
द्रवित हुई थी बारम्बार।
नाना कि प्यारी थी बहना
बाबा कि अति प्यारी थी,
तीर और तलवार संगिनी
बरछी और कटारी थी।
झाँसीं के राजा से ब्याही
वैभव के झूले में झूली,
किन्तु फिरंगी की चालों ने
बार-बार हिम्मत तोली।
बारम्बार हराया उनको
पर वे निर्दय भारी थे,
धोंखों और जालसाजी से
भरे हुए व्यापारी थे।
संघर्षों में बीता जीवन
जाने कितने युद्ध लड़े,
गंगाधर राजा के मग में
कंटक हरदम रहे गड़े।
प्रिय बेटे के प्राण हर लिए
राजा को मारा छल से,
रानी हुई हताश एक क्षण
फिर भर गई मनोबल से।
झाँसी थी प्राणों से प्यारी
भारी दु:ख भी झेल गई,
ली तलवार क्रान्ति की उसने
घोड़ी पर चढ़ चली गई।
दोनों हाथों में तलवारें
रास दाँत बिच दबी हुई
दिव्य तेजह की अवतारी वह
महासमर में कूद गई।
फिरंगियों को हरा हरा कर
उसने लाखों प्राण हरे,
राष्ट्र प्रेम की दीवानी वह
दुश्मन रहते सदा डरे।
हाय! किन्तु कुछ अपनों ने ही
गद्दारी का काम किया,
जिनके लिए लड़ी जीवन भर
कुछ ने नमक हराम किया।
जूझ गई वह स्वतंत्रता हित
प्राण दिए पर आन नहीं,
म्लेच्छों को छूने न दिया तन
जग में कर के नाम गई