झींसी / नाज़िम हिक़मत / सुरेश सलिल
झींसी पड़ रही है
सहमी-सहमी-सी;
दबी आवाज़ में
जैसे ग़द्दारी-भरी साज़िशाना ख़ुसफ़ुस ।
झींसी पड़ रही है
जैसे कीचड़-काली ज़मीन पर
भाग रहे भगोड़े के नंगे और बदरंग पैर ।
झींसी पड़ रही है
और सेरेज़ के बाज़ार में
ठठेरे की दुकान के सामने
एक दरख़्त से
लटका हुआ है मेरे बद्रेद्दीन का जिस्म ।
झींसी पड़ रही है
और अन्धेरी रात के आख़िरी पहर का वक़्त है
और बारिश से तरबतर मेरे शेख़ का बरहना जिस्म
एक मनहूस शाख़ से झूल रहा है ।
झींसी पड़ रही है
और सेरेज़ का बाज़ार गूँगा हो गया है
और अन्धा हो गया है सेरेज़ का बाज़ार
और हवा में ख़ामोशी और अन्धेपन की
मनहूस उदासी घुली हुई है
और सेरेज़ के बाज़ार ने अपना चेहरा
दोनों हाथों से ढक लिया है ।
और झींसी पड़ रही है ...।
1936
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अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल