झील : चैत्र अमावस्या की रात / राजेन्द्र किशोर पण्डा / संविद कुमार दास
बाँई हथेली में तुझे हिफ़ाजत में ले कर
अमावसी आकाश में उसने उड़ते हुए आ कर
चारों दिशाओं से पर्वतों से घिरी
घने जंगल की उपत्यका के बीच
स्थापित किया, विस्तार दिया, गहरा किया
’झील’ कहकर
कानों में चुपके से सम्बोधन किया,
इसकी प्रतिध्वनि सुनाई ना दे
वह सतर्क था
पंख गिराकर
सात परत कवच खोलकर
सावधानी से पानी में उतरकर
तैरते हुए
छोटे-छोटे धक्कों के साथ, तेरा
लाड़-दुलार किया, प्यार किया
दम घुट न जाय
उसके प्रति वह सजग था
नपे-तुले दूरत्व और गहराई से
ख़ुद को हटाकर
किनारे पर पोंछ-पाँछ कर
परत-परत कवच पहनकर
डैने जोड़, वह
उड़ता-उड़ता उड़ता-उड़ता
क्या पता कहाँ
फ़रार हो गया
कई सालों बाद
तेरे क़रीब जब
पर्वत वनों को भेदकर
एक रास्ता आया
गाड़ियाँ-मोटरें आईं
आए फिर पिकनिक वाले,
सुनने को मिला
ना जाने कितने लील गई है तू
बूढ़े-जवान-बच्चे,
लाशें भी कहीं गायब हो गई,
कहीं पूरी चट्टान ही
तेरी चुम्बक-शक्ति से युक्त,
और साठ करोड़ घड़ियाल हैं खुले मुँह
दल बाँधे आते हैं अब भी,
किनारे पर मौज कर के
लौट जाते हैं,
तारीफ़ में कहते हैं तेरी :
"बहुत सुन्दर,
आदमखोर के पानी में पाँव
ना रखो तो ठीक !"
वर्ष में एक बार
एक अमावसी रात में ही केवल
कोई आता नहीं भरोसा लिए,
घनघोर अन्धेरे के भीतर कहीं
अपने किनारे तक उठ आती है तू
नंग-धड़ंग,
टूटे हुए ढेरों कवच तेरे हाथों में,
टूटे पंख, सड़ी-गली उँगलियाँ,
और पूरा आकाश होता है
अन्धेरी गहरी
धीमी पुकारों की प्रतिध्वनियों से भरा
मूल ओड़िया से अनुवाद : संविद कुमार दास