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झुकी निगह में है ढब पुर्सिश-ए-निहानी का / 'ममनून' निज़ामुद्दीन
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झुकी निगह में है ढब पुर्सिश-ए-निहानी का
हया में ज़ोर दिया रंग मेहर-बानी का
जिए हैं गर्म नफ़स सोज़ से कि बहर-ए-चराग़
करे है शोला ही काम आम-ए-ज़िन्दगानी का
तबस्सुम-ए-लब-ए-ग़ुंचा को देख रोता हूँ
कि ठीक रंग कि उस ख़ंदा-ए-निहानी का
कहाँ से ज़ोर-ए-दिल-ओ-सीना-ओ-जिगर लाऊँ
तुम्हें तो खेल लगा हाथ तेग़-रानी का
इलाही जैब कि दामन कि आस्तीं धोऊँ
मिज़ा ले सीख लिया शुग़्ल ख़ूँ-फ़िशानी का
नहीं बचा मरज़-ए-इश्क़ से कोई ‘ममनूँ’
हमें दरीग़ बहुत है तेरी जवानी का