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झुलसता बचपन और मैं / नीता पोरवाल
Kavita Kosh से
जेठ बैशाख में
रात खत्म होने से
कुछ पहले ही
आ धमकते हैं उजियारे
अँधेरा दूर करने की जिद में
रौबदार सुर्ख आँखें लिए बिछा देते हैं इस
छोर से उस छोर तक धूप ही धूप
देखने लगती हूँ मैं
हवा संग खिलखिलाती झूमती
अभी अभी जन्मी उस नन्ही दूब को ,जो
सांझ तक झुलसा हुआ पाएगी अपनी
मासूमियत को , अपने बचपने को
मैं लेती हूँ साँस जिसमें
घुले हुए हैं कई रंग, घुटन के
उमस के, उस पीड़ा के क्योंकि
मैं जानती हूँ कि मैं हूँ
अपराधी उस दूब की जिसने
बचपने को झुलसते हुए मूक देखते रहने की