भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
झूलन / पतझड़ / श्रीउमेश
Kavita Kosh से
सुनै छियै सहरोॅ मंे होय् छै, झूलन टाकुरबारी में।
लेकिन गामोॅ में तेॅ भैया, झूलन हमरै डारी में॥
बुतरु बतरा भुट्टा खाय्-खाय् हमरै छाां फूलै छेॅ।
डारी में रस्सी बाँधी केॅ बै झूला पर झूलै छेॅ॥
भुट्टा मार्होॅ (मार्होॅ) खाय छ आरु, गावै छेॅ कजरी-मल्हार।
सावन मास सुहा छै होयछ एकरोॅ छेकै ई सिंगार॥
भुट्टा भेलै खूब, पकै छै चुल्ही में रे साँझ-बिहान।
घाठोॅ बनलोॅ छै जन्डा के; एकरो छै कुछ अलगे सान॥