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झोपड़पट्टी / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
बच्चों के साथ साथ
सामान बढ़ता जा रहा है
हम जिस कमरे में रहते हैं
वो घटता जा रहा है
कोई स्कीम हमारी गली तक
आती नहीं है बारिश में
घर तालाब बनता जा रहा है
इतना सट के रहते हैं
हम अपने पडोसी के
छन से मेरी हंडिया में
आवाज़ आती है
जब उसकी पत्नी
दाल में तड़का लगाती है
बहुत घनी है ये बस्ती
टीन टप्पड़ की हैं दीवारें
बरसाती पन्नी से छत ढकी है
फिर भी अंदर आ जाती हैं
धुप की बौछारें
कोई ख़याल भी आये
गर दौड़ता हुआ घर में
पूरा कमरा शोर मचता है
ऐ ज़हर आलूद हवाओं
आहिस्ता से क़दम रखना
तुम भी मेरी बस्ती में
वरना यहाँ अगर फैली ख़ामोशी
तो गूंगे हो सकते हैं वह भी
जिनकी बुलंद है आज
आवाज़ फ़िज़ाओं में॥