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टकराहटें पल रही हैं समन्दर के भीतर / मुन्नी गुप्ता

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चिड़िया सुनती है
       सुदूर कहीं से आती आवाज़ें
शायद आसमाँ से भी परे
कोई कह रहा है
चेतावनी के अन्दाज़ में —
“उसे तट छोड़ जाना ही होगा “
 
समन्दर
       अपने भीतर ही झाँकता है
                           घुटन से
       साँसें घोंटती हैं गला
       घुटन से उसकी धड़कन रुकी-सी है
  अपने चीरे जाने पर भी शायद
       शायद समन्दर इतना परीशाँ न हुआ
 
समन्दर में चल रही हैं साज़िशें
       मछली, जीव-जन्तु, वनस्पति
       सभी एकजुट हो रहे हैं
       समन्दर के बदलते
       इश्क़िया ख़यालातों के ख़िलाफ़
 
एकजुट हो रहे हैं
       समन्दर के भरते परवाज़ों के ख़िलाफ़
अब वे तैयारी में हैं
समन्दर के साथ हवा और मौसम का रुख़
पलटने की ज़द में हैं
 
मछुआरा समन्दर में जाल फेंकता है
शायद समन्दर की साँस में
अटकी फाँस को खींच लेना चाहता है
वह समन्दर बचाने की ज़द में है
बहेलिया चिड़िया को सुरक्षित
कहीं पहुँचाना चाहता है
 
समन्दर के भीतर हलचल है
वह चिड़िया को बचाना चाहता है
                           आसमानी कहर से ।
                           बचाना चाहता है
                           अपने भीतर के समुद्री लुटेरों से ।
वह नहीं जानता
       ज़लज़ले कब, किस रूप में उठेंगे ।
पर समय की नब्ज़ पर उसकी आँखें हैं ।
 
वह उसकी आहटें सुन रहा है
औ’ सिहर-सिहर उठता है
समय की शक़्ल पहचानने की कोशिश में है ।
चालें समझने की कोशिश में है ।
 
समन्दर जानता है
 
उलटी पड़ी-सी मछली के काँटे
उसका जिस्म तीर-तीर करने को काफ़ी हैं
 
समन्दर अचेत-सा पड़ा
वनस्पति, जीव-जन्तु
सब की हरकतों को पकड़ने की
कोशिश में है
केकड़े और लाल बिच्छुओं से तट
                 भरता जा रहा है ।
नील-फूल ग़ायब हो रहे हैं
टकराहटें पल रही हैं समन्दर के भीतर
समन्दर के ख़िलाफ़ ।
 
मछली और समन्दर
समन्दर और पानी
पानी और वनस्पति
टकराहटें अब भाषा की ज़ुबान में
                           लड़ी जाएँगी
या जंग की शक़्ल लेगी ।
समझना अभी अशेष है ।