टपक रही हैं खपरैलें / राजेन्द्र गौतम
इस बादल का जल
काजल-भर
ज्योतित रेख नहीं कोई ।
इसके गर्जन से
थर्राता
चिन्ताकुल बूढ़ा आकाश
लादे है
यह वसुन्धरा भी
छाती पर केवल संत्रास
अन्धियारे
सब गलियारे हैं
दीपित लेख नहीं कोई ।
कीच-भरी
धँसती आँखों-सी
टपक रहीं हैं खपरैलें
मन के
सब विश्वास डुबाए
फैले जोहड़ मटमैले
आश्वासन के
दूर क्षितिज तक
अब आलेख नहीं कोई ।
अपने संग ले गई
बहा कर
सपने सब जंगली नदी
खड़े तटों पर
बचे लोग
हैं देख रहे डूबती सदी
सुनते भर हैं
गाँव यह था
पाया देख नहीं कोई ।