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टरटल्स फ़्लाई फ़िल्म और एक स्त्री प्रश्न / रंजना जायसवाल

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अगरिन,
तुम बार-बार इस पहाड़ी के किनारे
क्यों खड़ी हो जाती हो आकर
उदास और खामोश
शून्य में खोजती हुई सी कुछ
यह ‘कुछ’क्या है मेरी बच्ची
जिसने खेलने-खाने की उम्र में ही
भर दी तुममें बड़ी-बूढ़ी की गंभीरता
तुम रोती भी नहीं
तुम्हारी आँखों में आँसू की जगह
राख़ –सा है कुछ
यह तुम्हारे सपनों की राख़ है
कि बचपन की?
तुम्हारे रंग कहाँ गुम हो गए
कहाँ गईं शरारतें
बचपन में होती हैं
बच्चियाँ अपनी
गुड़ियाँ की माँ
पर तुम हो
अपने भाइयों की
जिनमें एक है नन्हा बच्चा
दूसरे की काट ली गई हैं बाहें
तुम लौट जाती हो बार-बार
इस पहाड़ी पर आकर
उनके ही लिए
जैसे माएँ जीने के लिए कुछ न होते हुए भी
जीती रहती हैं
अपने बच्चों के लिए
अगरिन, रातों में जब सो जाते हैं बच्चे
तुम जागा करती हो
पुरानी यादें अतीत के अजायबघर से
निकलकर डराने लगती हैं तुम्हें
एक खलबली मच जाती है तुम्हारे भीतर
बार-बार आँखों के सामने से
गुजरता है भयावह दृश्य
जब रौंदी जा रही थी फौजी बूटों से
धरती की छाती
बारूद से भूने जा रहे थे लोग
गुलाबी पंखुरियों में धँसाए जा रहे थे
जहरीले नाखून
नोचे जा रहे थे बचपन के
एक-एक पंख
भूखे सैनिकों के हवस के हाथों!
कितनी लहूलुहान हुई थी
तुम्हारी देह
और कितनी आत्मा
तुम ही जानती हो मेरी बच्ची!
जानती हूँ
तुम मुक्त नहीं हो पा रही हो
उस तकलीफ से आज भी
जब कि बच्चे हैं साथ
और अब जीवन में आ गया है
‘सेटेलाइट’ नामक प्रेम का झोंका
जिसे तलाश थी तुम-सी लड़की की
और जो ‘हरा’ कर देता है
कभी-कभी तुम्हारा मन भी

ये क्या अगरिन
खत्म कर लिया खुद को
पीड़ा से मुक्त होने के लिए
प्रेम भी नहीं रिझा सका तुम्हें
जबकि विश्वास तो इतना था कि
बिना उससे पूछे
कुछ कहे बिना
सौंप गयी अपनी जिम्मेदारियाँ
 
एक बात पूछूँ अगरिन
स्त्री क्यों नहीं जीना चाहती
देह के अपवित्र किए जाने के बाद
क्या बड़ी होती है जिंदगी से देह
क्यों अपवित्र होती है स्त्री की ही देह
स्त्री मानती ही क्यों है खुद को
सिर्फ देह!