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टर्मिनस / अनंत कुमार पाषाण

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दो तेज रेलगाडियों की तरह
हम एक-दूसरे के पास से गुजर गए,
एक की लम्बाई से दूसरे की लम्बाई नप गई।

छूट गए पटरी-से जीवन के सारे क्रम,
तब तक तो दोनों ने कितने ही स्टेशन,
गांव, खेत पार किए,
और विपरीत दिशाओं में
दूर-दूर बढ गए...
दोष तीव्र गति का है,
वेग की मर्यादा होनी चाहिए,
नहीं तो इसी तरह दुरियां बढती हैं,
फासले जितने ही तय करो
उतने ही बढते हैं।

कहीं कोई टर्मिनस शायद ऐसा भी हो,
जहां रेलगाडियां
सभी रुक जाती हैं।