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टिमटिमाता हुआ इक अश्क गिरा हो जैसे / ज्ञान प्रकाश विवेक
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टिमटिमाता हुआ इक अश्क गिरा हो जैसे
दूर मंदिर में कोई दीप जला हो जैसे
आँख मलते हुई यूँ धूप खड़ी थी छत पर
नींद के बाद कोई बच्चा उठा हो जैसे
आइना इस तरह वो देख रहा था यारो
मुद्दतों बाद उसे चेहरा मिला हो जैसे
एक पागल था जो फिरता था परीशाँ होकर
ख़ुद को रख वो कहीं भूल गया हो जैसे
यूँ दिखाती रही वो अपनी हथेली मुझको
मेरी किस्मत का कोई चाँद पड़ा हो जैसे