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टुकु-टुकु / कुमार वीरेन्द्र

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बाबा के छीपे में सिर्फ़ बाबा
के लिए, जेवनार नहीं होती

तभी तो
ऐसा नहीं, पालथी मार आपन
ही पेट भरने लगे; छीपा आते, हरस जाते — दुगो बैलों, एगो गइया, पाँच गो कुतवा को देते, एगो
रोटी चिरइयों को आँगन में ऊ कोन तुर-तुर रख देते, जहँवा आजी ढकनी में ओराते पानी भरने
लगती; फिर चौकी बैठ, जो कुछ जेवने को, हाथ जोड़े मूँड़ी नवा प्रणाम करते
लोटे के पानी को भी; 'धरती मइया, पुरखन की जय' कह, हम भाई
बहनों को खिलाते खाने लगते; हम जब ले खाते, कुतवा
नहीं लउकता; बस हम अउर चिरइयाँ; बाबा
खिलाते-खाते दु घूँट पानी पी
जब डकारने लगते
पेट पर

हाथ फेरते हम भी, नक़ल में कुछ
जादे ही 'आउ-आउ', करने लगते

एक तो जूठा
गिरता नहीं, गिर भी गया, किसी और
को उठाने नहीं देते, अपने ही उठाते; लाख मना करतीं बेटी-बहुएँ, माँजने की जगह छीपा-लोटा भी
कई बार, खुद ही रख आते; सब जानते — जूठे बर्तन पड़े रहें, बाबा माँजने लगेंगे, फिर केहू जा नहीं
पाता हटाने; उनका कहना, 'जिसमें खाते, धोने में काहे लाज, अरे लाज तब, जूठे
तवाँता रहे; इसे हमसे जादे सुनर होना चाहिए'; बाबा खा लेते, दुआरे
आराम नहीं करते, बगीचे चले जाते; उँहे ओठँगे कुतवा
से बतकही करते, 'का हो, पेटवा भर गया न
कम तो नाहीं हुआ?'; कुतवा लाड़
लगाते, दुनो गोड़ प
मुँह रखे

कुईं-कुईं करने लगता, बाबा सहजे
बूझ जाते, उसे सुहुराते, कह पड़ते

'ठीक है रे
पाठा, मस्त रह मस्त...'
मैं हरदम सोचता — बाबा खाने से पहिले, कुतवा को भी खाने को देते हैं, तब नाहीं
अब पूछते हैं, बड़ बुड़बक हैं न; मेरे मुँह, अपने बारे में 'बुड़बक' सुन, ठहाका लगा
हँस पड़ते, जब थमते, कहते — '...ऊ मानुस ही का बेटा, जिसे अपनों
के दुःख-भूख की थाह नाहीं'; पूछता, 'अच्छा, इसीलिए
पहिले खिलाते हो...?', कहते — 'इसलिए भी
और इसलिए भी कि अपनों के
लिए तब हम अपने
कहाँ, जब

वे दु कौर की आस में टुकु-टुकु
ताकते रहें...अउर हम गुबु-गुबु

खाते रहें !'