टूटी हुई बाँसुरी लेकर सुर साधूँ तो साधूँ कैसे ?
परिचित लोग अपरिचित बातें, 
बड़े औपचारिक से रिश्ते 
कट जाती है यहाँ ज़िन्दगी
नक़ली चन्दन घिसते-घिसते 
सम्बन्धों के शिलालेख को कोई पढ़ना नहीं चाहता 
मैं परिचय की पावन पोथी फिर बाचूँ तो बाचूँ कैसे ?
पर्वत जैसा कपट जगत में, 
जगह-जगह छल खाई जैसा 
और प्रेम दिखता है अंशुल
इस दुनिया में राई जैसा
ऊपर-ऊपर पँखुरियाँ  हैं नीचे-नीचे शूल  बिछे हैं
ऐसे में आगे बढ़ने का पथ माँगूँ तो माँगूँ कैसे ?
अजब दोगलापन, शब्दों  का 
अर्थ अलग, भावार्थ अलग है 
बोलचाल तो एक मनुज की 
लेकिन सबका स्वार्थ अलग है
 
रेतीली होनी थी लेकिन पथरीली हो गई चेतना 
मन की छलनी में रिश्तों को अब छानूँ तो छानूँ कैसे ?