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टेक एक ज़िन्दगी की / महमूद दरवेश / सुरेश सलिल

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अगर कोई मुझसे पूछता,
‘तुम्हें आज शाम को मरना है यहीं,
लिहाजा दरमियानी वक़्त में तुम क्या करोगे ?’

मैं कहता, क़लाई घड़ी देखूँगा,
एक गिलास जूस पियूँगा
एक सेब चरचराऊँगा और फ़ासिले पर रेंगती
उस चींटी को निहारूँगा
जिसने दिन-भर की खुराक हासिल कर ली है ।

फिर क़लाई घड़ी देखूँगा
अभी शेव और ग़ुसल का वक़्त है ।
एक ख़याल दिमाग़ में उभरेगा,
कि लिखना शुरू करने से पहले
किसी शख़्स को ख़ुशनुमाँ दिखना चाहिए
लिहाज़ा नीले रंग की कोई पोशाक पहनूँगा
और दोपहर तक डेस्क पर काम करूँगा, बग़ैर
इसकी परवाह किए कि अल्फ़ाज़ की रंगत है
सफ़ेद-यक्दम सफ़ेद ।

अपना आख़िरी खाना तैयार करूँगा
दो गिलासों में शराब ढालूँगा :
एक अपने लिए
दूसरा किसी अचानक आ टपकने वाले
मेहमान के लिए

फिर दो ख़्वाबों के दरमियान एक झपकी लूँगा
मगर मेरे खर्राटे की आवाज़ मुझे जगा देगी
फिर क़लाई घड़ी देखूँगा :
पढ़ने के लिए वक़्त अभी है
दाँते का एक बाब<ref>डिवाइन कॉमेडी का एक सर्ग</ref> और आधा मुअल्लक़ा<ref>अरबी का एक सम्पादित क्लासिक</ref> पढूँगा
और देखूँगा कि मेरी ज़िन्दगी कैसे अगलों में जाती है
और क़त्तई हैरत नहीं होगी कि उसकी जगह कौन लेता है

‘ठीक ऐसे ही?’
‘ठीक एसे ही...’
‘फिर?’
‘बालों में कँघी करूँगा
और नज़्म फेंक दूँगा....
यह नज़्म कूड़ेदान में,

इटली में ख़रीदी नई क़मीज़ पहनूँगा
स्पानी वायलिनों के साज़ पर खुद को अलविदा कहूँगा
फिर — चल पडूँगा क़ब्रिस्तान की जानिब...’

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल

शब्दार्थ
<references/>