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टेढ़े पहिए में / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
लगता है स्थिर है
तब भी स्थिर नहीं होता
काँपता है बिम्ब
प्रतिबिम्ब
दूर का पास दिखने पर
कुछ और अधिक
चमकते हैं धब्बे
लहकता जाता है काल
टेढ़े पहिए की तरह
नशे में धुत व्यक्ति की तरह
काटता रहता है मजे-मजे में
कभी कागज का पुतला,
कभी कागज के फूल,
कभी कागज की तितली,
कभी कागज की नाव,
कभी कागज की मछली,
कब तक
कितने दिन तक चलता है
बार-बार कह उठता है
कुछ और दिखाओ
वहा-वाह
कुछ और सुनाओ
ये अनहद नाद थोड़े ही है
कि गुम हो जाओगे
अनंत में
या अंत में
टेढ़े पहिए में भी
कुछ सीधा हिस्सा होता है
उतना-सा ही बस
जीवन का किस्सा होता है।