भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टेमा-ढिबरी / लीलाधर मंडलोई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बढ़ी उम्र को धारण करना एक असहाय हुनर है
गो कोई मन से पहुंचने में कतराता है वहां
वह डरता है ऊबड़-खाबड़ रास्‍तों के अकेलेपन से
भूलना चाहता वह जो स्‍मृति में गझिन

जैसे इस गंध को लें
उतरते जतन से खदान में टेमे की लौ साधे
साधने को अवश घासलेट की गंध
देखता रहा अचरज में रोशनी का वृत्‍त

एक गुफा में दैत्‍य का साहस बटोरे
ढूंढता रहा बरसों-बरस काला हीरा
उलझे रास्‍तों पर कोई था सहारा तो टेमा
मालिकों ने लालटेन जैसी आधुनिक वस्‍तु को
रखा छिपाकर कि उसमें त्‍वरित फायदों का गणित

तोड़ते हुए उसने कोयले के पहाड़
याद रखा टेमे को एक आइने की तरह
उसके विषैले धुंए की परत फेफड़ों में बनाती रही घर
एक गंध भरी रोशनी थी लेकिन जो
दो जून की रोटी का इंतजाम कर सकती थी

उसकी एक बहन थी ढिबरी
और वह घर में अंधकार से लड़ती थी
उसकी भी वही गंध जो
चूल्‍हे पर किसी सामान्‍य छोंक से

थोड़ा-सा शरमाके ढुबक जाती थी
वह अक्‍सर अंधेरों का समय था
और रोशनी को बचाके जीने की कला
पिता ने दस्‍तखत करने लायक अक्षर
ढिबरी में गढ़ना सीखे
हमने वर्णमाला
और मां ने सही जगह अंगूठा लगाना
कि पगार बिना हील-हुज्‍जत के मिल सके

पर एकाएक हाथ में आकर नहीं गिरे सच
अमावस की रातों ने सीख दी
गंध ने बावजूद विरक्ति के लड़ने का माद्दा
प्रेमियों ने अंधेरों में संतति का संभावित चेहरा
इन्‍हीं मुश्किलों के बीच पहचाना

जितना चांद को तब पहचाना गया
अब मुहाल है
दिखाई नहीं पड़ते सातों रंग
तब दीवार से भाई की छाती की तरह चिपटकर
रोया जा सकता था खुलकर

भाईयों ने कब से छोड़ दिया गले लगना
वे तस्‍वीरों को देख कहते हैं कभी-कभार
वह तीसरे नम्‍बर पर हैं मंझले
और उनके पीछे जो धब्‍बा से हैं
बड़े हैं जिनका चेहरा अब याद नहीं आता

सोचते हैं पिता उम्र की ढलान पर
टेमा छूट गया
और ढिबरी घरों से गायब
प्रकाश के छुट्टा वृत्‍तों के संसार में
जब लेंगे अंतिम सांस
वहां होगी गंध आत्‍मा में

मरने के बाद शायद ही कोई रोएगा
दीवार को छाती की तरह लगाए अब.