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ठंड़े अलफ़ाज़ / प्रेम कुमार "सागर"

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हर पत्थर जो उछला मेरा सर आजमाने को
सभी को साँचे में डाला मैंने मूरत बनाने को |

मेरे जज्बात जल रंगते रहे कोना इमारत का
कोई कसर बाकी भी है क्या घर सजाने को |

तेरे अलफ़ाज़ ठंड़े है, समझा तो मै लेकिन
मेरा ही आशियाँ तुझे मिला बोलो जलाने को |

गैरों से बच लूँ लाख, पर अपने तो है अपने
साया मेरा ही दौड़ता है, मुझे काट खाने को |

मुसाफिर कहाँ तुझको मिलेंगे लहर के अन्दर
"सागर' डूबी नौका है बस दिल को मनाने को |