भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठाँव नहीं / अज्ञेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में
अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में
त्राहि! त्राहि! शरण-शरण!
रुकते नहीं युगल चरण

थमती नहीं भीतर कहीं गँूज रही एकसुर रटना
कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें!
आन? मान? वह तो उफान है गुरूर का-
पहली जरूरत है जान से चिपटना!

इलाहाबाद, 23 अक्टूबर, 1947