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ठिकाना / सुकान्त भट्टाचार्य

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ठिकाना मेरा तुमने चाहा है, बंधु !
ठिकाने के ही संधान में लगा हूँ,
नहीं मिला आज तक ? दुख दिया है तुमने तो क्यूँ न करूँ अभिमान ?
 
ठिकाना अगर न भी चाहो, बंधु !
पथ ही है मेरा वास स्थान, कभी पेड़ों के नीचे रहता हूँ,
कभी पर्णकुटीर गढ़ता हूँ,
मै यायावर, चुनता रहता पथ के पत्थर,
हज़ारों जनता जहाँ, वहाँ मै प्रतिदिन घूमता-फिरता हूँ |

बंधु ! मै ढूँढ़ ही नहीं पाता घर की राह,
तभी तो गढ़ूँगा पथ के पत्थरों से
मज़बूत इमारत |

बंधु, आज आघात न करो
तुम लोगों के दिए घाव पर
मेरा ठिकाना ढूँढो सिर्फ़
सूर्योदय के पथ पर |
इंडोनेशिया ,युगोस्लाविया
रूस और चीन के पास ,
मेरा ठिकाना बहुकाल से
मानो बंधक पड़ा है |

क्या तुमने कभी ढूँढ़ा है मुझे
समस्त देशभर में ?
नहीं मिला मेरा ठिकाना ? तब क्या
गलत पथ पर ढूँढ़ते फिरे हो |

मेरा ठिकाना जीवन के पथ से
महामारी से होकर
मुड़ गया है जो कुछ दूर जा कर
मुक्ति के मोड़ पर |

बंधु ! कोहरा... सावधान यहाँ
इस सूर्योदय के भोर में;
तुम अकेले न पथ भूल जाओ
रोशनी की आस में |

बंधु ! न मालूम क्यूँ आज अस्थिर है
रक्त, नदी का जल,
नीड़ में पाखी और समुद्र भी चंचल |

बंधु ! समय हो आया अब
ठिकाना अब अवहेलित
बंधु ! तुमसे इतनी ग़लतियाँ क्यूँ होती हैं ?
और कितने दिनों तक दोनों आँखें खुजलाओगे,
जहाँ से जलियांवाले बाग़ का पथ शुरू होता है
उसी पथ पर मुझे पाओगे,
जलालाबाद का पथ पकड़ मेरे भाई !
धर्मतल्ला के ऊपर ,
देखना ठिकाना लिखा है प्रत्येक घर में क्षुब्ध
इस देश में खून के अक्षरों में |

बंधु ! आज दो विदा

देख कैसे उठ रही है तूफ़ानी हवा
ठिकाना देता हूँ यही ,
इस बार मुक्त स्वदेश में ही मुझसे मिलो ।


मूल बंगला से अनुवाद : मीता दास