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ठीके कइलऽ हे निष्ठुर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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ठीके कइलऽ हे निष्ठुर, ठीके कइलऽ
हमरा हृदय में तेज आग जला के
दारुण दाह पैदा कइलऽ से ठीके कइलऽ
हमार जीवन-धूप सुनुगी न
त सुगंध, दीही कइसे?
हमार जीवन-दीप जरी न
त अँजोर बाँटी कइसे?
हमरा अचेतन चित्त के
तहार आघाते अनुप्राणित करेला
तहरा कठोर हाथ के स्पर्श
ओकरा खातिर पुरस्कार ह।
चित्त जब चेतनहीन हो जाला
तब चोटे ओके चेतावे ला।
मोह लाज के अन्हार में
आँख तहरा के देख ना पावे
अपना व्रजाघात से अइसन आग जरावऽ
जेमें हमरा हृदय के सब मलिनता जर जाय।