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ठीक चलने और न चलने के बीच / विष्णु नागर

Kavita Kosh से
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सबकुछ ठीक चल रहा होता है
इतना ठीक
कि गलत कुछ चल ही नहीं रहा होता-
कॅरियर, परिवार, बैंक बैलेंस, तबियत

तब भविष्‍यफल मनोरंजन के लिए पढ़ा जाता है
मंत्रि‍त अंगूठियां घर में होती हैं तो उन्‍हें पहनना बोझ लगता है
ज्‍योतिषी बताता है कि जजमान अभी तो आपका और अच्‍छा समय आएगा
आप देखते जाइए

अचानक सबकुछ गलत चलने लगता है
इतना गलत कि कुछ ठीक चल ही नहीं रहा होता
जहां हाथ डालो, हाथ जलने लगता है
ठंडे पानी से भी शोले निकलने लगते हैं
अंगूठियां, तंत्र-मंत्र, यज्ञ-हवन, उपवास-जाप-वास्‍तु-तीर्थयात्राएं
कुछ काम नहीं आती
फिर भी ईश्‍वर पर विश्‍वास रखना होता है कि वही सबकुछ ठीक करेगा
और वह कुछ-कुछ ठीक कर भी देता है

उसे भी तो अपनी दुकान चलाना है
लेनिक वह सीख दे जाता है कि
इस बार मुझे और मेरे बन्‍दों को भूल मत जाना
अंगूठियां पहनना, मंत्र जाप करना, ज्‍योतिषियों पर भरोसा रखना
और हो सके तो बीजेपी में भर्ती हो जाना
वरना नरेन्‍द्र मोदी की तारीफ करना तो सीख ही जाना

ईश्‍वर की दी यह सीख काम आती है
फिर सबकुछ तो ठीक नहीं होता
लेकिन सबकुछ तो ठीक नहीं होता
ईश्‍वर की मेहरबानी बनी रहती है
बुजुर्गों का आशीर्वाद फलता रहता है
घर में पहले से बड़ी कार आ जाती है
मकान में तीसरी मंजिल जुड़ जाती है
नौकर-चाकर दिनभर दौड़ते, डांट खाते रहते हैं
प्रभु में और शेयर मार्केट में मन रमा रहता है
बेटे-बेटी, नाती-पोते एम.बी.ए. वगैरह हो रहे होते हैं
कोई अमेरिका से आ रहा होता है, कोई अमेरिका जा रहा होता है
अमेरिका अपने दूसरे घर जैसा लगने लगता है

इधर पेट से वायु निकलती रहती है
और उधर मुंह से ओम निकलता रहता है.