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डरते-डरते दमे-सहर से / इक़बाल

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डरते-डरते दमे-सहर<ref>सुबह</ref> से,
तारे कहने लगे क़मर<ref>चाँद</ref> से ।
नज़्ज़ारे रहे वही फ़लक पर,
हम थक भी गये चमक-चमक कर ।
काम अपना है सुबह-ओ-शाम चलना,
चलन, चलना, मुदाम<ref>लगातार</ref> चलना ।
बेताब है इस जहां की हर शै,
कहते हैं जिसे सकूं, नहीं है ।

होगा कभी ख़त्म यह सफ़र क्या ?
मंज़िल कभी आयेगी नज़र क्या ?

कहने लगा चाँद, हमनशीनो !
ऐ मज़रअ-ए-शब के खोशाचीनो !<ref>रात की खेती की बालियाँ चुनने वालों</ref>
जुंबिश<ref>हिलने</ref> से है ज़िन्दगी जहां की,
यह रस्म क़दीम<ref>पुरानी</ref> है यहाँ की ।
इस रह में मुक़ाम बेमहल<ref>कुसमय</ref> है,
पोशीदा<ref>छिपा हुआ</ref> क़रार<ref>ठहराव</ref> में अज़ल<ref>मृत्यु</ref> है ।
चलने वाले निकल गये हैं,
जो ठहरे ज़रा, कुचल गये हैं ॥

शब्दार्थ
<references/>