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डरा हुआ आदमी और कविता / आलोक कुमार मिश्रा

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राजनीति में मुझे पड़ना नहीं था
इसलिए समाज पर लिखी
मैंने एक कविता

कविता में अनायास उठे कुछ सवाल
सवालों पर बहुत से लोगों ने
किया बवाल
कहा — संस्कृति की महानता के गान की बजाय
क्यों समाज की मर्यादा रहे हो उछाल
यह कहकर कविता मिटा दी गई

डरा हुआ मैं सोचने लगा
परिवार पर लिखूँ
कोशिश कर ही रहा था कि
परिवार नाराज़ होकर कहने लगा —
कुछ काम कर लो
ये कविता काम नहीं आएगी

अन्त में
मैंने सोचा प्रेम पर लिखता हूँ
सबसे सुरक्षित है यह
इस पर कोई आवाज़ नहीं उठ पाएगी
पर लाख चाहने पर भी लिख न सका
प्रेम पर कविता
आखिर मैं जिससे प्रेम करूँ या
मुझसे जो करे
ऐसा कोई तो होता

एक डरा हुआ शून्य आदमी
आख़िर लिखे भी तो क्या ?